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Monday, August 29, 2011

कुछ न कह कर भी सब कहा


ग़ज़ल


कुछ न कह कर भी सब कहा मुझसे

जाने क्या था उसे गिला मुझसे

चंद साँसों की देके मुहलत यूँ

ज़िंदगी चाहती है क्या मुझसे

क्या लकीरों की कोई साज़िश थी

रख रही हैं तुझे जुदा मुझसे

जो भरोसे को मेरे छलता है

वो ही उम्मीद रख रहा मुझसे

शोर ख़ामुशी का न अभ पूछो

कह गई अपना हर गिला मुझसे

ऐब मेरे गिना दिये जिसने

दोस्त बनकर गले मिला मुझसे

जिसने रक्खा था क़ैद में मुझको

ख़ुद रिहाई क्यों चाहता मुझसे

हमने पाया तो बहुत कम है



ग़ज़लः
हमने पाया तो बहुत कम है, बहुत खोया है

दिल हमारा लबे-दरिया पे बहुत रोया है

कुछ न कुछ टूट के जुड़ता है यहाँ तो यारो

हमने टूटे हुए सपनों को बहुत ढोया है

अर्सा लगता है जिसे पाने में वो पल में खोया

बीज अफसोस का सहरा में बहुत बोया है

तेरी यादों के मिले साए बहुत शीतल से

उनके अहसास से तन-मन को बहुत धोया है

होके बेदार वो देखे तो सवेरे का समां

जागने का है ये मौसम वो बहुत सोया है

बेकरारी को लिये शब से सहर तक ये दिल

आतिशे-वस्ल में तड़पा है, बहुत रोया है

इम्तहाँ ज़ीस्त ने कितने ही लिये हैं ‘देवी’

उन सलीबों को जवानी ने बहुत ढोया है

देवी नागरानी

मेरी पोती निकिता नागरानी

मेरे बचपन का अक्स

गुड़िया रानी, गुड़िया रानी

तू क्यों भई उदास

बन संवर कर आज है जाना

तुझे पिया के पास

देवी नागरानी


Sunday, August 28, 2011

मताये कुव्वते ईमान

गज़लः

मताये कुव्वते ईमान का जोया कहाँ हूँ मैं

तहज्जुद की नमाजौं में अभी रोया कहाँ हूँ मैं

शजर एक सायादार उग आये जिस के खुश्क सीने से

अभी वो बीज मिटटी में तेरी बोया कहाँ हूँ मैं

तुम्हारे ख्वाब और ताबीर मेरी कोई तुक भी है

अरे बेदार मग्जो!! उम्र भर सोया कहाँ हूँ मैं

अभी कुछ शर्मसारी हो अभी कुछ अश्क बहने दो

जो दाग उभरे हैं दामन पर उन्हें धोया कहाँ हूँ मैं

तेरी आँखौं से आँसु के बजाये खून जारी हो

कहानी दुःख भरी सुन कर अभी रोया कहाँ हूँ मैं

पहाडौं ने जिसे धोने से माजूरी जताई थी

अभी तक सर पे अपने बोझ वो धोया कहाँ हूँ मैं

मेरी चीखौं को सब नगमा समझ कर दाद देते हैं

अज़ीज़ इस शहरे बेएहसास में खोया कहाँ हूँ मैं

शायरः अज़ीज़ बेलगामी

गायकः गुलोकार रफ़ीक़ शेख़

Saturday, August 27, 2011

मेरा अँत

मेरा अंत

मेरे आगे

हर पल प्रत्यक्ष होकर

मेरा मार्गदर्शक बनता है

खुली आँखों से मैं

उस सच को देखती हूँ

पर मंदबुधि की आंख

देख कर भी अनदेखा करती है

जानती है, पर

पहचानने से इनकार करती है

और, इसी तरह ज़िन्दगी का सूरज

सुबह का सफ़र तय करके

मेरे सर का साया बनकर

उसी ज़िन्दगी की ढलान से

ढलता हुआ नीचे उतर आता है

और मैं रोज़

यह दृश्य खुली आंख से देखती हूँ

फिर भी

खोई खोई सी रहती हूँ

शायद सच को पहचानने के प्रयास में!

देवी नागरानी

पहचान

हमारा वजूद इतिहास में दर्ज है

और होगा

हमारा आज

आने वाले कल के लिए

इतिहास का एक बीता हुआ पल ही सही

पर पन्नों में एक सुफ़्आ बना रहेगा.

देवी नागरानी

खोजा है एक सत्य

एकांत की गहराइयों में

डूबकर खोया एक सत्य

जो ज़ाहिर करता है-हमारे वजूद का बिछड़ना

अपने आप से जुदा होने की वेदना

उसकी छटपटाहट

एक खालीपन में खोकर

खुद को पाने की तलाश

ता-उम्र की तड़प !!

देवी नागरानी

ता-उम्र की तड़प

एकांत की गहराइयों में

डूबकर खोया जाना एक सत्य

जो ज़ाहिर करता है-

अपने वजूद का बिछड़ना

अपने आप से जुदा होने की वेदना

उसकी छटपटाहट

एक ख़ालीपन में खोकर

खुद को पाने की तलाश

ता-उम्र की तड़प !!

देवी नागरानी

सुधा ओम के निवास स्थान पर

PiC: Shri Madan Goyal, Devi nangrani, Meera Goyal, Sudha Om, Shashi Padha and Dr. Om
११ जूलाई २०११ रैले में सुधा ओम ढींगरा जी के निवास स्थान पार एक यादगार गोष्टी का आयोजन हुआ जिसमें भागीदारी रही नार्थ कैरोलिना के साहित्य प्रेमी जो अपने आप में एक संस्था से कतई कम न थे. अपनी रचनाओं से एक समाँ बांधने में सक्षम रहे. गोष्टी खहाने के पश्चात ७ बजे के करीब शुरू हुई और रात ११.३० के करीब संपूर्ण हुई


बिंन्दु सिंह के सफल संचालन के तहत गोष्टी का संचार हुआ.


Pic: Dr. Viajay, Shashi padha, Sudha Om, Dr. Om, Bindu Singh, Devi Nangrani
सुधा ओम ढींगरा, शशि पाधा, केशव पाधा, देवी नागरानी, मीरा गोयल, मदन गोयल, बिंन्दु सिंह, आदिति मजुमदार, रमेश शोणक, तोषी शोणक, सरदार सिहं , महिन्दर सिहं , उषा देव, जाफ़र अब्बास, विजया जी, फ़रहाना, श्री दास, श्रीमती दास. प्रो॰ बिजय दाश व उनकी धर्मपत्नी की भागीदारी रही. अंत में सुछाजी ने सब का धन्यवाद अता किया.


एक खत ख़ुद के नाम

प्रिय देवी,

आज वक़्त की शाख़ से टूटकर एक लम्हां

मेरी याद के आँगन में आकर ठहरा है

कुछ सोचों का सिलसिला चलता रहा

फिर जाने कब वो कहाँ टूटता रहा,

और साथ उसके क्या क्या टूटा

क्या बताऊँ मैं तुम्हें?

इन्सान की फितरत बदली

साथ उसके बँट गए आँगन

दीवार बन गई रिश्तों के बीच में,

अँह की गर्दन तन गई,

इन्सानियत को खा गई इन्सान की हवस

सर्द हो गई प्यार की बाती

सन्नाटों की सल्तनत बाकी रही

जहाँ ठँडी छाँव को आदमी तरस रहे हैं.

तन तो खिज़ाओं की थपेड़ों से झड़ रहे हैं..

आगे और क्या लिखूँ? मन भर आया है

बस यादों के दीपक असुवन में झिलमिला रहे हैं,

बुझती हुई साँसों ने आज फिर चोट खाई है

इन यादों के आँगन में, जहाँ ठहरा हुआ वह पल

मेरे अस्तित्व को पुकार रहा है,

जाने कब मिलना हो?

तब तक,

तेरी परछाई

॥ जिसे वक्त की आँधी उड़ाकर फिर से आँगन में ले आई॥

देवी नागरानी

नार्वे की लेखक गोष्ठी


'भारतीय-नार्वेजीय सूचना एवं सांस्कृतिक फोरम ( Indo-Norwegian Informaion and Cultural फोरम) के मंच पर शनिवार 7 मई,  2011 भारतीय- नार्वेजीय सूचना एवं सांस्कृतिक फोरम , (स्थान) वाइतवेत कल्चर सेंटर ओस्लो में नार्वे का स्वतन्त्रता दिवस (८ मई ), और गुरुदेव रवींद्र नाथ टैगोर के १५० वे जन्मदिन पर को मनाया गया और साथ ही एक सफ़ल लेखक गोष्ठी से उस कार्यक्रम को संपन्न किया, जिसमें मुख्य अतिथि रहे स्थानीय मेयर थूर स्ताइन विंगेर और भारतीय दूतावास के सचिव बी के श्रीराम जी ने अध्यक्षता की. विशिष्ट अतिथि रही जानी-मानी यू एस ए की कवियित्री श्रीमती देवी नागरानी जिन्हें हिंदी साहित्य सेवा के लिए सम्मानित किया गया. दीप प्रज्वलन के पश्चात निकिता और अलक्सन्देर शुक्ल सीमोनसेन, रविन्द सीवेर्टसेन और कुनाल भरत ने राष्ट्रीय गान प्रस्तुत किया था. इस संस्था के अध्यक्ष सुरेशचंद्र चन्द्र शुक्ल 'शरद आलोक' जी ने हिंदी व् नॉर्वेजियन भाषा में मिले- जुले संचालन का भार सँभालते हुए मुख्य अतिथियों का फूलों से स्वागत किया, स्थानीय मेयर थूर स्ताइन विंगेर और भारतीय दूतावास के सचिव बी के श्रीराम जी ने देवी नागरानी जी को शाल ओढ़ाकर सम्मानित किया.

बहता रहा जो दर्द का सैलाब


ग़ज़ल


बहता रहा जो दर्द का सैलाब था न कम

आंखें भी रो रही हैं, ये अशआर भी है नम

रिश्तों के नाम जो भी लिखे रेगज़ार पर

कुछ लेके आंधियां गईं, कुछ तोड़ते हैं दम.

मुरझा गई बहार में, वो बन सकी न फूल

मासूम-सी कली पे ये कितना बड़ा सितम

रोते हुए-से जश्न मनाते हैं लोग क्यों

चेहरे जो उनके देखे तो, असली लगे वो कम

देवी नागरानी

Friday, August 26, 2011

Proclamation received on 15th AG 2011

The event was conducted in cooperation with the Honourable Mayor Jerramiah Healy, Medical Practitioner Group, Govinda Army, Young patriots, Friends of India and Senior cultural affairs. The Flag was hoisted with an echo of Jana Gana Mana on the terrace of the City hall


Proclamation was received for the serviced oriented and talented personalities in the presence of Marino Vega, Jr. the Council President , Leona Beldini the deputy Mayor, Bill Gaughan the Councilman Ward D, Who unanimously congratulated the recipients listed below for their achievements. Praduman patel the founder of Govinda Army, Dr. Jayesh Kumar ( medical practitioner), Devi Nangrani ( teacher ,writer, poet) Dinesh Pandya ( president of Indian American cultural Society of North America), Manorama Vyas (teacher and social services) The mayor also appreciated the Literery achievement of Smt Manorma Desai and Devi Nangrani when he was presented wth the Book Charage-Dil (collectin of Gazals)

In the picture from L to R are Paraduman patel,honorable Marino Vega, Bill Gaughan, Devi Nangrani, Manorama Vyas, Leona Beldini, Perter M. Brennan,and Jagdish patel

Flag Hoisting in Union City

Our honouable mayor Mr.Brian Stack, Commissioner Christopher F. Irizarry, Commissioner Lucio Fernandez and the team hoisted and saluted the the Tri-colored Indian Flag On August 17, 2011 and participated in the singing of the National Anthem Jana Gana Mana. He and his team presented the proclamation as an honour to Nalin Shah, Ashwin Shah, Manish Patel, Kishore Chawla and Devi nangrani for their civic services in the Community.
The Mayor was honored with a Plaque on behalf of the Indian Community by Nalin Mehta, who expressed his feelings for the Mayor Bryan Stack saying “ he is very energetic, very enthusiastic, dynamic, and determined to get the job done. He puts the community first and has made the Indian Community feel at home.” In a thanking note Mr. Bryan Stack said that he is happy to see the Indian working in different sectors of Union City showing the harmony of the community in Union City saying “my office is open to you, our hearts are open to you.”

हाल अक्सर पूछते थे, क्या हुए



डा. गिरिराजशरण अग्रवाल की एक ग़ज़ल

हाल अक्सर पूछते थे, क्या हुए
लोग जो अच्छे-भले थे, क्या हुए
क्या हुईं वे छाँव वाली शीशमें
पंछियों के घोंसले थे, क्या हुए
अब तो इन शाखों पे कलियाँ तक नहीं
फूल जो कल खिल रहे थे, क्या हुए
दूरियों में कल निकटता शेष थी
वे जो कल तक फ़ासले थे, क्या हुए
फूँकना घर औ’ तमाशा देखना
शहर में कुछ दिलजले थे, क्या हुए
अब से पहली यात्रा में दोस्तो,
सीधे-सीधे रास्ते थे, क्या हुए

Thursday, August 25, 2011

नहीं पत्थर पिघलते हैं




शिवदत्त अक्स की एक ग़ज़ल



यूँ ही आहों की गरमी से नहीं पत्थर पिघलते हैं

चले जब आंधियाँ घर में, नहीं फिर दीप जलते हैं

हुई जब भी मुलाकातें, गले मिल मिल के रोते थे

बड़ी है बेबसी इतनी नहीं अब अश्क ढलते हैं

कभी कागज़ के फूलों पे न भंवरे गुनगुनाते हैं

न शम्अ हो अगर रौशन नहीं परवाने जलते है

वो क्या जानेंगे ये बातें मुहब्बत से जो डरते हैं

वो समझेंगे ये किस्से जो उल्फ़त में मचलते है

जमाना था हमारी राहें इक मंज़िल पे मिलती थी

मिलते अक्स और वो अक्सर नहीं पर साथ चलते हैं



Wednesday, August 24, 2011

My God Is so Great



This a the first song that my grandson Yash Nangrani is singing


My God is so great
So strong and so mighty
There is nothing my GOD cannot do
For you, For you!!

Wednesday, June 15, 2011

आज और कल

यही वह समय है

जब वक़्त के गलियारे से

गुज़रते हुए

अपने बीते हुए "कल" का किवाड़

अपने पीछे बंद कर दें

और, आने वाले कल को

अपनाने के लिए 'आज' का दरवाज़ा खुला रखें

आज का वक़्त

उस अध्ययन में बिताएं

तो फिर शायद वो ग़लतियां

सामने न आए, जो

कल के किवाड़ के पीछे

हम बंद कर आए हैं.

देवी नागरानी

Tuesday, June 7, 2011

अनकही यादें

मूक ज़ुबान


कुछ कहने की कोशिश में

फिर भी नाक़ाबिल रही

नहीं बयां कर पाई उन अहसासों को

जो उमड़ घुमड़ कर

यादों के सागर की तरह

उसकी प्यसी ज़ुबाँ के अधर तक आ तो जाते हैं

पर अधूरी सी भाषा में

वह अनकही दास्तां

बिना कहे, फिर मौन रह जाती है

यह बेबसी है उसके सिये हुऐ लबों की

जो आज़ादी के नाम पर

अब भी दहशतों की गुलामी में

जकड़े हुए हैं.

देवी नागरानी

Sunday, June 5, 2011

आस का दामन

यक़ीन की डोर पकड़ कर

मेरे इस मासूम से मन को

आस का दामन छूने की तमन्ना

अब तक है,

सामने सूरज की रौशनी

आस की लौ बनकर

जगमगा रही है

पर, जाने क्यों?

ज़िंदगी की दल-दल में

विवशता धँसती ही जा रही है

मेरी मुफ़लिसी की,

मेरी अपंगता की

जो मेरी अक्षमताओं का

प्रद्रशन करने में कोई कसर नहीं छोड़ती

पर सांसें निराशा का दामन

छोड़ कर, आज भी

जीवन का हाथ थाम रही है

शायद उन्हें अपना मूल्य कथने की

आज़ादी है.

Thursday, June 2, 2011

रेती-रेती, साहिल-साहिल

बहता जीवन मेरी मँजिल

बह गई सब आशाएं

निराशाओं की धार में,

भूख, प्यास, चोरी, डाके

सब के सब हथियार गुनह के

कोई कैसे बचे बचाए,

चोर के घर में चोर जाए

कहो कैसे कोई किसे समझाए

देवी नागरानी

Tuesday, May 31, 2011

मन की सियासत

समझ के बाहर है

खेल मन की सियासत का,

मन की सोच का जंगल भी

किसी सियासत से कम नहीं,

कभी तो ताने बाने बुनकर

एक घरौंदा बना लेती है

जहां उसका अस्तित्व

आश्रय पा जाता है,

या, कहीं फिर

अपनी ही असाधारण सोच

के नुकीलेपन से

अपना आशियां उजाड़ देती है.

होश आता है

उस बेहोश सोच को

जब लगता है उसे

पांव तले धरती नहीं

और वो छत भी नहीं

जो एक चुनरी की तरह

ढांप लेती है मान सन्मान.

मन की सियासत! उफ!!

यह सोच भी शतरंज की तरह

बिछ जाती है

जहां उसूलों की पोटली भर कर

एक तरफ रख देते हैं हम

और सियासत के दाइरे में

पांव पसार लेते है,

जहां पहनावा तो नसीब होता है

पर छत नहीं.

हां! वो स्वाभिमान को

महफूज़ रखने वाली छत,

वो ज़मीर को जिंदा रखकर

जीवन प्रदान करने वाली छत,

जिसकी छत्र छाया में

सच पलता है

हां! सच सांस लेता है.

देवी नागरानी

Tuesday, May 24, 2011

मन की सइरा

मेरी यादों का सागर

हिचकोले खाता, लहराता

मेरे मन के अंतरघट को छूता है,

मेरी इच्छा, अनिच्छा के आंचल को

कभी तो भिगो कर जलमय करता,

कभी तो खुश्क मरुस्थल की तरह

छोड़ जाता है

जाने क्यों मेरा मन

प्यासा ही प्यासा

किसी अनजान, अद्रश्य

तट पर बसना चाहता है

जहां मेरे मन की सइरा

निर्जल होने से बच जाए

रेत-रेत ना रहे

पानी पानी हो जाए.

देवी नागरानी

Friday, May 20, 2011

प्यास ही प्यास

मेरा मन एक रेतीला कण !

एक अनबुझी प्यास लेकर

बार-बार उस एक बूंद की तलाश में,

जैसे पपीहे को बरसात की वो पहली बूंद

वक्त के इंतज़ार के बाद मिली

और तिश्नगी को त्रप्त कर गई.

वैसे ही मेरा मन

हं! मेरा प्यासा मन

उसी अंतरघट के तट पर

कई बार इसी प्यास को बुझाने

अद्रश्य धारा की तलाश में

अनंत काल से भटक रहा है.

देवी नागरानी

Monday, May 2, 2011

हकीकत

आज वो

मेरे सामने ठूंठ बनकर खड़ा है

देख रही हूँ पिछले तीन माह से

निरंतर देखती रही मैं

उसकी अठखेलियाँ

हरी भरी लहलहाती वो शाखें

हंसती, झूमती, नाचती वो पत्तियाँ

मौसम के हर रंग से भीगा

वो शजर, भूल गया था झड़ जाना है

उम्र ढली अब घर जाना है.

तमाम ज़िन्दगी बीती उसका

बीज से विस्फोटित होकर

विकसित हुआ, फला फूला

फिर भी, हर बदलता मौसम

उसे तन्हा करता जाता है

और आज

वह मेरे सामने उदास सा

ठूंठ बनकर खड़ा है

मैं उसे देख रही हूँ

वो खिड़की के उस पार

मैं खिड़की के उस पार खड़ी हूँ.

देवी नागरानी

वक्त का तकाज़ा


हम मात खाकर लौटें या

विजयी होकर!

खुद को मालामाल करें या कंगाल

हीरे लेकर साथ जायें या कंकर

अपनी टकसाल के हम खुद वारिस हैं.

जन्म सिद्ध अधिकार है

अख़्तयार पाने के लिए

हमें थोडा सा वक़्त

अपने उस निजी काम के लिए निकलना होगा!

देवी नागरानी



Tuesday, April 19, 2011

नया साल


नया साल आकर चला जाता है

पुराना साल

जाते जाते पुनः नए नए वादे कर जाता है

और फिर नया साल आता है!

अपने ही नक़ाबपोश चहरे में

जाने कितने स्याह राज़ छुपकर

जाने से पहले

बारूदी फटाखों से

शरारों की दीवाली मनाता है

दिलेरों की छाती को छलनी करवाता है

शहादतों के नारे लगवाता है

उनकी बेवाओं को ता-उम्र रुलाता है

माँ बहनों की आशाओं के दीप

अपने नापाक इरादों से बुझवाता है

और

फिर वही एहसान फरामोशी का चलन

कुछ नया करने के लिए

नया आवरण ओढ़कर

आ जाता है

पर अब उसका स्वागत कौन करे?

कौन उसके सर पर खुशियों का "ताज" रखे

जिसे खँडहर बनाकर

उसने रकीबी हसरतें पूरी कर ली

पर क्या हासिल हुआ?

हा हा कार मचा, भूकंप आया

ज़लज़ला थरथराया

और फिर सब थम गया

सिर्फ धरती का आंचल लाल हो गया

उन वीर सपूतों के लहू से

जिनकी याद हर साल

फिर ताज़ा हो जाती है

जब

पुराना साल जाता है

और नया साल आता है!!!

देवी नागरानी





Friday, April 1, 2011

धूप में निकला न कर

ग़ज़ल

डरता है परछाई से तू गर
धूप में निकला न कर

तू समय की शाख से
वक़्त कुछ माँगा न कर

ठहरे पानी में ऐ नादाँ
संग यूँ फेंका न कर

आँच में अपने ग़मों की
ऐसे तो पिघला न कर

चेहरे पे चेहरा लगाकर
आईने बदला न कर

सोच की गलियों में जाकर
सीखे बिन लौटा न कर
देवी नागरानी

गीत मेरे हैं बिन आवाज़

ग़ज़लः

बजे न टूटे दिल का साज़
गीत मेरे हैं बिन आवाज़

परदे के पीछे था साज़
फाश हुआ रातों में राज़

कहाँ हैं कोए अक्स वो सारे
जिन पर शीशों को था नाज़

ज़िंदा रखना वो उम्मीदें
बेपर करना है परवाज़

जान न पाते वो औक़ात
ढाश न होता गर वो राज़

ख़ुशबू की नीलामी हर दिन
माली चमन का है हमराज़
देवी नागरानी

Monday, March 21, 2011

यह पल

कल और आज के बीच का

यह पल मेरा है

और यही वह समय है

जिसमें मैं

उस सचाई से परिचित हुई हूँ

कि मैं वो नहीं

जो कुछ करती हूँ

करता कोई और है

मैं वो नहीं जो सुनती हूँ

सुनता कोई और है

मैं वो नहीं जो जीती हूँ

जीता कोई और है

मैं तो खुद को जीवित रखने के लिए

रोज़ मरती हूँ

देवी नागरानी

मैं कौन हूँ?

मैं वो कविता हूँ
जो कोई क़लम न लिख पाई
रात के सन्नाटों में
तन्हाइयों का शोर
ज्वालामुखी बन कर उबल पड़ा,
इक दर्द जो सदियों से
चट्टान बनकर मेरे भीतर जम गया था
वही पिघलकर
एक पारदर्शी लावा बनकर बह गया
जब मैं खाली हुई
तब जाकर जाना कि मैं कौन हूँ
देवी नागरानी

डर किस बात का

आँखें बंद है मेरी
तीरगी से लिपटा हुआ
ये मन, गहरे बहुत गहरे
धंसता चले जा रहा है.
जब
बेबसी में खुद को छोड़ दिया
तब लगा
मैं रोशनी से घिर गई हूँ
अब मुझे डर किस बात का !

देवी नागरानी

गुमराह न हो

आबला पा हुए हैं हम चलते चलते कल से आज तक के इस सफ़र में , जो मेरे बचपन को लेकर अब तक की मेरी जिंदगी को ज़ब्त कर चुका है ओर निश्चित है आज से आने वाले कल तक का सफ़र भी तय होगा शायद वो रिसते हुए छाले क़दम दर क़दम आगे और आगे बढ़ते रहें इस आशा में, कि मेरे पांव भटक कर संभल जाएं पर, कहीं गुमराह न हो!
देवी नागरानी

खुली किताब

सोच की सिलवटें
मेरी पेशानी पर तैरती है
और जैसे ही
वो गहरी हुई जाती हैं
एक उलझन बनकर
चहरे की झुर्रियों के साथ
तालमेल खाती
मेरे माथे पर एक छाप छोड़ जाती है
और उस वक़्त
एक खुली कि़ताब का सुफ़्आ
बन जाता है मेरा चहरा
जिसे, वक़्त के दायरे में
कोई भी पढ़ सकता है.
देवी नागरानी

जीवन की सच्चाई

जीवन को
मौत के शिकंजे से
आज़ाद करवाना है
अवसर है यही
जानती हूँ, पर पहचानती नहीं
उस सच को , जो
निरंतर कहता है
"जीवन पाना है, तो
विष को पीना होगा"

विष!
विष तो जीवन को मार देगा
जीवन दान कैसे दे सकता है?
वह जो खुद कड़वाहटों का प्याला है
अम्रत कैसे बन सकता है?

अविश्वास में मैं जीती हूँ
अविश्वास में मैं मरती हूँ
गर यही जीवन है
तो इस बार
इस बार उस सत्य को
जो निरंतर कहता है
"जीवन पाना है, तो
विष को पीना होगा"
उस सत्य पर विश्वास करके
मेरे अंदर के
सारे अविश्वास मिटाना चाहती हूँ.

शायद इस जीवन को जीते जीते
मैं जान गई हूँ
कि मैं उस विष को पिये बिना
जीवित नहीं रह सकती

देवी नागरानी

Sunday, March 20, 2011

होली मुबारक

झूमकर नाचकर गीत गाओ
सात रंगों से जीवन सजाओ

पर्व पावन है होली का आया
भाईचारे से इसको मनाओ

हर तरफ़ शबनमी नूर छलके
कहकशाँ को ज़मीं पर ले आओ

लाल, पीले, हरे, नीले चहरे
प्यार के रंग ऐसे मिलाओ

देवी चहरे हों रौशन सभी के
दीप आशाओं के यूँ जलाओ

देवी नागरानी

Sunday, March 6, 2011

मछली जल की रानी है

मछली जल की रानी है
जीवन उसका पानी है
हाथ लगाओ डर जायेगी
बाहर निकालो मर जायेगी
देवी नागरानी

एक कौआ प्यासा था

एक कौआ प्यासा था
जग में थोड़ा पानी था
कौआ डाला कँकर
पानी आया ऊपर
कौआ पिया पानी
ख़तम हो गई कहानी
देवी नागरानी

ऐ री बंदरिया मेरी

ऐ री बंदरिया मेरी
पूंछ कहाँ है तेरी
ढूँढ उसे यूँ बाहर भीतर
नींद उड़ी है मेरी
देवी नागरानी

Friday, February 18, 2011

आओ राजा आओ रानी




आओ राजा आओ रानी
तुम्हें सुनाऊँ एक कहानी
एक था हाथी, एक थी हाथिन
दोनों निकले पीने पानी

हाथिन ने जब पी लिया जल
हाथी ने कुछ मन में ठानी
पानी भरकर सूड़ में अपनी
दोनों राह चले पहचानी

चलते चलते राह में देखा
पानी बिन इक चिड़िया प्यासी
पास में उसके जा हाथी ने
बरसाया सब सूड़ का पानी

ख़ुश हुए सब देखने वाले
ताली बजा बजाकर नाचे
"हाथी वन का बना है राजा
हाथिन उसकी हुई है रानी"

आओ राजा आओ रानी
तुम्हें सुनाऊँ एक कहानी
देवी नागरानी

Thursday, February 17, 2011

तितली उड़ी


तितली उड़ी
अपने नन्हें भाई "सँभव शर्मा" को सुनाते हुए

तितली उड़ी, बस में चढ़ी
सीट नहीं मिली
ड्राइवर ने कहा
आजा मेरे पास
तितली बोली " हट बदमास"
मैं तो चली वापस आकाश.
प्रसुतकर्ताः
स्तुति शर्मा

एक मुर्गा चश्मे दीदम


एक मुर्गा चश्मे दीदम
चलते चलते थक गया
लाओ चाकू काटो गर्दन
फिर भी वो चलने लगा
कलमकारःस्तुति शर्मा
(Grand-daughter of Shri R.P.Sharma)

मेरे बचपन का अक्स

मेरी पोती निकिता नागरानी
गुड़िया रानी, गुड़िया रानी
तू क्यों भई उदास
बन संवर कर आज है जाना
तुझे पिया के पास
देवी नागरानी

Tuesday, February 1, 2011

रिशतों में है सौदेबाज़ी



रिशतों में है सौदेबाज़ी
कोई नहीं है किससे राज़ी.

तुम गर सेर सवा मैं भी हूँ
समझो भल पर कम नहीं हूँ

तू मेरा मैं तेरा काजी
कोई नहीं है किससे राज़ी

"तेरा मेरा" करके बढ़ाई
दिल में दरार की यह खाई

इक दूजे के वो सौदाई
कोई नहीं है किससे राज़ी

नहीं शिकायत शिकवा कोई
कौन यहाँ है दिलबर देवी

लुटी लुटी है सारी खुदाई
कोई नहीं है किससे राज़ी
देवी नागरानी

Saturday, January 22, 2011

निकिता नागरानी

जन्म: २0 may 2006

एक गुडिया रानी थी
लगती बड़ी सायानी थी
हाथ से सबकुछ छीने ऐसे
कौवों की वो रानी थी

Monday, January 17, 2011

मेरी प्रार्थना

My God is so Great
So strong and so mighty
There is nothing my God Can not do
For You, For You

आओ राजा आओ रानी

आओ राजा आओ रानी
तुम्हें सुनाऊँ एक कहानी
एक था हाथी, एक थी हाथिन
दोनों निकले पीने पानी

हाथिन ने जब पी लिया जल
हाथी ने कुछ मन में ठानी
पानी भरकर सूड़ में अपनी
दोनों राह चले पहचानी

चलते चलते राह में देखा
पानी बिन इक चिड़िया प्यासी
पास में उसके जा हाथी ने
बरसाया सब सूड़ का पानी

ख़ुश हुए सब देखने वाले
ताली बजा बजाकर नाचे
"हाथी वन का बना है राजा
हाथिन उसकी हुई है रानी"

आओ राजा आओ रानी
तुम्हें सुनाऊँ एक कहानी
देवी नागरानी

Wednesday, January 5, 2011

न लोहा बन सके सोना

वो पारस क्या जिसे छूकर
न लोहा बन सके सोना

विकारों मैं है मन मैला
शरीरों को है क्या धोना?

यह रिश्तों की बची है राख
नए फिर बीज क्यों बोना?

सजा कर दिल में बर्बादी
किया आबाद हर कोना

न ऐसी चाह रख दिल में
जहाँ पा कर पड़े खोना

ख़ुशी मातम मनाती जब
ग़मों को आ गया रोना

मुझे दे पाक दिल मौला
न धन मांगूँ न मैं सोना

यह जीवन कैसा है देवी
सलीबों को जहाँ ढोना
देवी नागरानी

Sunday, January 2, 2011

जीवन एक पहेली

जीवन का है अर्थ अनोखा
फिर बिन अर्थ बिताए क्यों ?

बसँत ऋतू में बहार आई
फिर कलियाँ मुरझाए क्यों ?

घनी है जीवन पेड़ की छाया
नीरस पल फिर आए क्यों ?

देह विदेह के अँतर घट में
घने अँधेरे छाए क्यों ?

रचना की सुँदरता में ये
कुरूप पल है आए क्यों ?

सुलझी है हर गुत्थी फिर भी
उलझन के ये साए क्यों ?

कोयल स्वयँ तो काली काली
मीठी कूक सुनाए क्यों ?
देवी नागरानी