Pages

Tuesday, May 31, 2011

मन की सियासत

समझ के बाहर है

खेल मन की सियासत का,

मन की सोच का जंगल भी

किसी सियासत से कम नहीं,

कभी तो ताने बाने बुनकर

एक घरौंदा बना लेती है

जहां उसका अस्तित्व

आश्रय पा जाता है,

या, कहीं फिर

अपनी ही असाधारण सोच

के नुकीलेपन से

अपना आशियां उजाड़ देती है.

होश आता है

उस बेहोश सोच को

जब लगता है उसे

पांव तले धरती नहीं

और वो छत भी नहीं

जो एक चुनरी की तरह

ढांप लेती है मान सन्मान.

मन की सियासत! उफ!!

यह सोच भी शतरंज की तरह

बिछ जाती है

जहां उसूलों की पोटली भर कर

एक तरफ रख देते हैं हम

और सियासत के दाइरे में

पांव पसार लेते है,

जहां पहनावा तो नसीब होता है

पर छत नहीं.

हां! वो स्वाभिमान को

महफूज़ रखने वाली छत,

वो ज़मीर को जिंदा रखकर

जीवन प्रदान करने वाली छत,

जिसकी छत्र छाया में

सच पलता है

हां! सच सांस लेता है.

देवी नागरानी

Tuesday, May 24, 2011

मन की सइरा

मेरी यादों का सागर

हिचकोले खाता, लहराता

मेरे मन के अंतरघट को छूता है,

मेरी इच्छा, अनिच्छा के आंचल को

कभी तो भिगो कर जलमय करता,

कभी तो खुश्क मरुस्थल की तरह

छोड़ जाता है

जाने क्यों मेरा मन

प्यासा ही प्यासा

किसी अनजान, अद्रश्य

तट पर बसना चाहता है

जहां मेरे मन की सइरा

निर्जल होने से बच जाए

रेत-रेत ना रहे

पानी पानी हो जाए.

देवी नागरानी

Friday, May 20, 2011

प्यास ही प्यास

मेरा मन एक रेतीला कण !

एक अनबुझी प्यास लेकर

बार-बार उस एक बूंद की तलाश में,

जैसे पपीहे को बरसात की वो पहली बूंद

वक्त के इंतज़ार के बाद मिली

और तिश्नगी को त्रप्त कर गई.

वैसे ही मेरा मन

हं! मेरा प्यासा मन

उसी अंतरघट के तट पर

कई बार इसी प्यास को बुझाने

अद्रश्य धारा की तलाश में

अनंत काल से भटक रहा है.

देवी नागरानी

Monday, May 2, 2011

हकीकत

आज वो

मेरे सामने ठूंठ बनकर खड़ा है

देख रही हूँ पिछले तीन माह से

निरंतर देखती रही मैं

उसकी अठखेलियाँ

हरी भरी लहलहाती वो शाखें

हंसती, झूमती, नाचती वो पत्तियाँ

मौसम के हर रंग से भीगा

वो शजर, भूल गया था झड़ जाना है

उम्र ढली अब घर जाना है.

तमाम ज़िन्दगी बीती उसका

बीज से विस्फोटित होकर

विकसित हुआ, फला फूला

फिर भी, हर बदलता मौसम

उसे तन्हा करता जाता है

और आज

वह मेरे सामने उदास सा

ठूंठ बनकर खड़ा है

मैं उसे देख रही हूँ

वो खिड़की के उस पार

मैं खिड़की के उस पार खड़ी हूँ.

देवी नागरानी

वक्त का तकाज़ा


हम मात खाकर लौटें या

विजयी होकर!

खुद को मालामाल करें या कंगाल

हीरे लेकर साथ जायें या कंकर

अपनी टकसाल के हम खुद वारिस हैं.

जन्म सिद्ध अधिकार है

अख़्तयार पाने के लिए

हमें थोडा सा वक़्त

अपने उस निजी काम के लिए निकलना होगा!

देवी नागरानी