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Friday, December 25, 2020

उत्पादन का ज़माना

  अर्थ शास्त्र का अर्थ है उत्पादन

सभी को उत्पादक होना है

वर्ना फिज़ूल है अस्तित्व ! 

समय से समय निकालकर

इन फिज़ूल अस्तित्व वालों को समय देना

फिज़ूल ख़र्ची मानी जाती है,  

समय का सदुपयोग है उत्पादन में

जहां संसार भर की सुविधाएं

उपलब्ध हों, लेकिन

उनका भोग करने के लिए

किसी के पास समय न हो! 

यह कैसा अर्थशास्त्र है

जिसके अर्थों में

परिवार नाम की संस्था की

नींव रखने वाले निर्वासित हो रहे हैं

ऐसे में घरों में सन्नाटा बस गया है

बूढ़े कहीं दिखाई नहीं देते!  

जवानी की दहलीज़ पार करते ही

एक अवस्था आती है जीवन में

जहां आदमी न जवान रहता है, न बूढ़ा

यह उसी समय की व्यथा है-उत्पादन का न होना । 

जवान बड़े होते हैं,

बूढ़ों को बूढ़ा होने के पहले, बूढ़ा करार किया जाता है

उनका सुख, चैन,

समय गँवाने के पहले,  नौजवान,

उनके लिए स्थापित किए गए

वृद्धाश्रम में उन्हें छोड़ आते हैं,

वहीं,

जहां उन्हें अपना कल महफ़ूज नज़र आता है।  

अब सोचिए,

नव पीढ़ी के इस सोच का आविष्कार

क्या क्या न देगा

आने वाके कल के वारिसों को

जब घर में बूढ़े न होंगे 

कौन सुनाएगा उन बच्चों को

तोता मैना की कहानी

वे लोरियां, जो

सपनों के संसार से उन्हें जोड़ती हैं,

वो बचपन के किस्से... वो बाबा की बातें....

घर आँगन में तुलसी का रोपना...

गायत्री मंत्र का पाठ, और...

हनुमान चालीसा का दोहराया जाना ... 

सभी कुछ तो छूट जाएगा

समय की तंग गलियों में खो जाएगा

और ऐसे संकीर्ण जीवन के सूत्रों से जुड़कर

आदमी असमय ही,

जीवन जीने के पहले बूढ़ा हो जाएगा।

पर,

क्या कर सकता है कोई

उत्पादन के ज़माने में?

यह वक़्त की मांग है

अपने ही स्थापित किए हुए वृद्धाश्रमों में

उन्हें जाना होगा......

आश्रय लेना होगा !

देवी नागरानी 

ग़ुरबत का सूद

नहीं चुका पाऊंगी मैं

उस बनिए के बिल को

गिरवी जिसके पास रखी है मेरी गुरबत,

यही तो मेरी पूंजी है, जो निरंतर बढ़ती जा रही है                                                                   

कर्ज़ के रूप में                                                                             

जिसे खाती जा रही है,                                                                   

जिसे निगलती जा रही है, मेरी इच्छाओं की भूख!!                                                                                                                                                 

और साथ उसके, बढ़ रहा है सूद भी                                                            

हाँ सूद, उन पैसों पर , जो मैंने कभी लिए ही न थे!                                                                    

हा, पेट की खातिर ले आई थी

दो मुट्ठी आटा, चार दाने चावल

कभी दाल तो कभी साबू दाने, 

उबाल कर अपने ही गुस्से के जल में

पी जाती हूँ

पिछले कई सालों से, हाँ गुज़रे कई सालों से लगातार

झुकते झुकते, मेरी गुरबत की कमर

अब दोहरी हो गई है

न कभी सीधी हुई, न होगी, उस सूदखोर अमीरों के आगे

कर्ज़दार थी, और सदा रहेगी!


देवी नागरानी

 


माँ ने कहा था

 माँ ने कहा था

मैं गाड़ी के नीचे आते आते

बच गई थी !

तब मैं छोटी थी....

और

माँ ने ये भी कहा था

आने वाले कल में

ऐसे कई हादसों से

मैं खुद को बचा लूँगी

जब मैं बड़ी हो जाऊँगी.....

पर

कहाँ बचा पाई मैं खुद को

उस हादसे से?

दानवता के उस षड्यंत्र से?

जिसने छल से

मेरे तन को, मेरे मन को

समझकर एक खिलौना

खेलकर, तोड़-मरोड़ कर

फेंक दिया उसे वहाँ,

जहां कोई रद्दी भी नहीं फेंकता !

उफ़ !

बीमार मानसिकता का शिकार

वह खुद भी,

ज़िन्दा रहने का सबब ढूँढता है !

सच तो यह है

वह मर चुका होता है...

जिसका ज़मीर ज़िन्दा नहीं !

याद आया

माँ ने ये भी कहा था

वह मर चुका होता है...

जिसका ज़मीर ज़िन्दा नहीं !

देवी नागरानी 

ग़ुरबत का सूद

नहीं चुका पाऊंगी मैं

उस बनिए के बिल को

गिरवी जिसके पास रखी है मेरी गुरबत,

यही तो मेरी पूंजी है, जो निरंतर बढ़ती जा रही है                                                                   

कर्ज़ के रूप में                                                                            

 जिसे खाती जा रही है,                                                                   

जिसे निगलती जा रही है, मेरी इच्छाओं की  भूख                                                                                                                                               

और साथ उसके, बढ़ रहा है सूद भी                                                            

हाँ सूद, उन पैसों पर , जो मैंने कभी लिए ही न थे!                                                                    

हा, पेट की खातिर ले आई थी

दो मुट्ठी आटा, चार दाने चावल

कभी दाल तो कभी साबू दाने, 

उबाल कर अपने ही गुस्से के जल में

पी जाती हूँ

पिछले कई सालों से, हाँ गुज़रे कई सालों से लगातार

झुकते झुकते, मेरी गुरबत की कमर

अब दोहरी हो गई है

न कभी सीधी हुई, न होगी, उस सूदखोर अमीरों के आगे

कर्ज़दार थी, और सदा रहेगी!


देवी नागरानी

 

 

                                           

नारी कोई भीख नहीं

नारी कोई भीख नहीं 

न ही मर्द कोई पात्र है

जिसमें उसे उठाकर उंडेला जाता है  

जिसे उलट-पुलट कर देखा जाता है

उसके तन की खुशबू का मूल्य आँका जाता है

खरीदा जाता है, इस्तेमाल किया जाता है

तद पश्चात उसे 

तोड़ मरोड़ कर यूँ फेंका जाता है

जैसे कोई कूड़ा करकट भी नहीं फेंकता.

अब अवस्था बदलनी चाहिए   

अब वे हाथ कट जाने चाहिए

जो औरत को, अपना माल समझकर

आदान-प्रदान की तिजारती रस्में

निभाने की मनमानी करते हैं

सोचिये, सोचिये मत ग़ौर कीजिये

जब औरत वही क़दम उठा पाने की हिम्मत जुटा पाएगी, तब

तोड़ न पाओगे / न मोड़ पाओगे उस हिम्मत को 

जो राख़ के तले                                                                           

चिंगारी बनकर छुपी हुई है /

दबी हुई हैबुझी नहीं है

मत छेड़ोमत आज़माओ,

उसको जो जन-जीवन के /निर्माण का अणु है।

मत बनो हत्यारे /उन जज़्बों केउन अधूरे ख्वाबों के

जो ज़िंदा आँखों में पनपने की तौफ़ीक़ रखते हैं।


देवी नागरानी                                                                                                                                                                                               


नारी-जन्मदातिनी

 मर्द की जन्म्दातिनी है औरत

क्यों वह भूल जाता है इस सच को ---

कि वह जीती है, मरती है 

इस सृष्टि के निर्माण के लिए

जो अपने कोख में समाये हुए है

क्यों नहीं उसे दे पाता है वह मान सन्मान

जो उसका जन्मसिद्ध अधिकार है

क्यों वह सोचने की गलती कर बैठता है

वह सिर्फ़ व् सिर्फ़ उसके बच्चों को माँ है

और उसके घर की रखवाली की मात्र चौकीदारिनी

क्यों उसकी आशाओं, इच्छाओं को अपने स्वार्थ के चौखट पर

बार बार बलि पर चढाने की पहल करता हैं

क्यों वह भूल जाता है, कि वह जिंदा है,

सांस ले रही है, आग उगल सकती है.

नहीं! सोच भी कैसे सकता है वह,                                                       

जो अपने ही स्वार्थ की इच्छा के

सड़े गले बीहड़ में वास करते आ रहा है 

गंद दुर्गंध उनकी सांसों में मांसभक्षी प्रवृती व्यापित करती है

वही तो हैं, जो उसके तन को गोश्त समझकर

दबोचते, चबाते, निगलते स्वाद लेता है

भूल जाता हैं कि कभी वह गले में 

फांस बनकर अटक भी सकती है!

देवी नागरानी 

Wednesday, August 30, 2017

Main Anjaane mein

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