नारी कोई भीख नहीं
न ही
मर्द कोई पात्र है
जिसमें
उसे उठाकर उंडेला जाता है
जिसे उलट-पुलट
कर देखा जाता है
उसके तन
की खुशबू का मूल्य आँका जाता है
खरीदा
जाता है, इस्तेमाल किया जाता है
तद
पश्चात उसे
तोड़ मरोड़
कर यूँ फेंका जाता है
जैसे कोई
कूड़ा करकट भी नहीं फेंकता.
अब
अवस्था बदलनी चाहिए
अब वे
हाथ कट जाने चाहिए
जो औरत
को, अपना माल समझकर
आदान-प्रदान
की तिजारती रस्में
निभाने
की मनमानी करते हैं
सोचिये, सोचिये मत ग़ौर
कीजिये
जब औरत
वही क़दम उठा पाने की हिम्मत जुटा पाएगी, तब
तोड़ न पाओगे / न मोड़ पाओगे उस हिम्मत को
जो राख़ के तले /
चिंगारी बनकर छुपी हुई है /
दबी हुई है, बुझी नहीं है
मत छेड़ो, मत आज़माओ,
उसको जो जन-जीवन के /निर्माण का अणु है।
मत बनो हत्यारे /उन जज़्बों के, उन अधूरे ख्वाबों के
जो ज़िंदा आँखों में पनपने की तौफ़ीक़ रखते हैं।
देवी नागरानी
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