नहीं चुका पाऊंगी मैं
उस बनिए के बिल को
गिरवी जिसके पास रखी है मेरी गुरबत,
यही तो मेरी पूंजी है, जो निरंतर बढ़ती जा रही है
कर्ज़ के रूप में
जिसे खाती जा रही है,
जिसे निगलती जा रही है, मेरी इच्छाओं की भूख!!
और साथ उसके, बढ़ रहा है सूद भी
हाँ सूद, उन पैसों पर , जो मैंने कभी लिए ही न थे!
हा, पेट की खातिर ले आई थी
दो मुट्ठी आटा, चार दाने चावल
कभी दाल तो कभी साबू दाने,
उबाल कर अपने ही गुस्से के जल में
पी जाती हूँ
पिछले कई सालों से, हाँ गुज़रे कई सालों से लगातार
झुकते झुकते, मेरी गुरबत की कमर
अब दोहरी हो गई है
न कभी सीधी हुई, न होगी, उस सूदखोर अमीरों के आगे
कर्ज़दार थी, और सदा रहेगी!
देवी नागरानी
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