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Monday, March 21, 2011

खुली किताब

सोच की सिलवटें
मेरी पेशानी पर तैरती है
और जैसे ही
वो गहरी हुई जाती हैं
एक उलझन बनकर
चहरे की झुर्रियों के साथ
तालमेल खाती
मेरे माथे पर एक छाप छोड़ जाती है
और उस वक़्त
एक खुली कि़ताब का सुफ़्आ
बन जाता है मेरा चहरा
जिसे, वक़्त के दायरे में
कोई भी पढ़ सकता है.
देवी नागरानी

2 comments:

mridula pradhan said...

और उस वक़्त
एक खुली कि़ताब का सुफ़्आ
बन जाता है मेरा चहरा
जिसे, वक़्त के दायरे में
कोई भी पढ़ सकता है.
wakayee behad khoobsurti ke saath likhi hai aapne,bahut achcha laga....

Devi Nangrani said...

Mridula ji
aapka bahut bahut abhaar meri rachnaon ko padhne ke liye
Devi Nangrani