सोच की सिलवटें
मेरी पेशानी पर तैरती है
और जैसे ही
वो गहरी हुई जाती हैं
एक उलझन बनकर
चहरे की झुर्रियों के साथ
तालमेल खाती
मेरे माथे पर एक छाप छोड़ जाती है
और उस वक़्त
एक खुली कि़ताब का सुफ़्आ
बन जाता है मेरा चहरा
जिसे, वक़्त के दायरे में
कोई भी पढ़ सकता है.
देवी नागरानी
मेरी पेशानी पर तैरती है
और जैसे ही
वो गहरी हुई जाती हैं
एक उलझन बनकर
चहरे की झुर्रियों के साथ
तालमेल खाती
मेरे माथे पर एक छाप छोड़ जाती है
और उस वक़्त
एक खुली कि़ताब का सुफ़्आ
बन जाता है मेरा चहरा
जिसे, वक़्त के दायरे में
कोई भी पढ़ सकता है.
देवी नागरानी
2 comments:
और उस वक़्त
एक खुली कि़ताब का सुफ़्आ
बन जाता है मेरा चहरा
जिसे, वक़्त के दायरे में
कोई भी पढ़ सकता है.
wakayee behad khoobsurti ke saath likhi hai aapne,bahut achcha laga....
Mridula ji
aapka bahut bahut abhaar meri rachnaon ko padhne ke liye
Devi Nangrani
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