समझ के बाहर है
खेल मन की सियासत का,
मन की सोच का जंगल भी
किसी सियासत से कम नहीं,
कभी तो ताने बाने बुनकर
एक घरौंदा बना लेती है
जहां उसका अस्तित्व
आश्रय पा जाता है,
या, कहीं फिर
अपनी ही असाधारण सोच
के नुकीलेपन से
अपना आशियां उजाड़ देती है.
होश आता है
उस बेहोश सोच को
जब लगता है उसे
पांव तले धरती नहीं
और वो छत भी नहीं
जो एक चुनरी की तरह
ढांप लेती है मान सन्मान.
मन की सियासत! उफ!!
यह सोच भी शतरंज की तरह
बिछ जाती है
जहां उसूलों की पोटली भर कर
एक तरफ रख देते हैं हम
और सियासत के दाइरे में
पांव पसार लेते है,
जहां पहनावा तो नसीब होता है
पर छत नहीं.
हां! वो स्वाभिमान को
महफूज़ रखने वाली छत,
वो ज़मीर को जिंदा रखकर
जीवन प्रदान करने वाली छत,
जिसकी छत्र छाया में
सच पलता है
हां! सच सांस लेता है.
देवी नागरानी
खेल मन की सियासत का,
मन की सोच का जंगल भी
किसी सियासत से कम नहीं,
कभी तो ताने बाने बुनकर
एक घरौंदा बना लेती है
जहां उसका अस्तित्व
आश्रय पा जाता है,
या, कहीं फिर
अपनी ही असाधारण सोच
के नुकीलेपन से
अपना आशियां उजाड़ देती है.
होश आता है
उस बेहोश सोच को
जब लगता है उसे
पांव तले धरती नहीं
और वो छत भी नहीं
जो एक चुनरी की तरह
ढांप लेती है मान सन्मान.
मन की सियासत! उफ!!
यह सोच भी शतरंज की तरह
बिछ जाती है
जहां उसूलों की पोटली भर कर
एक तरफ रख देते हैं हम
और सियासत के दाइरे में
पांव पसार लेते है,
जहां पहनावा तो नसीब होता है
पर छत नहीं.
हां! वो स्वाभिमान को
महफूज़ रखने वाली छत,
वो ज़मीर को जिंदा रखकर
जीवन प्रदान करने वाली छत,
जिसकी छत्र छाया में
सच पलता है
हां! सच सांस लेता है.
देवी नागरानी
3 comments:
bahut pasand aayee.......
मन की सोच का जंगल भी
किसी सियासत से कम नहीं,
सच कहा ...बहुत सुन्दर भावमयी रचना
आपने एकदम सटीक सही बात कही है, मन की सियासत कोई ना जाने.
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