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Friday, May 20, 2011

प्यास ही प्यास

मेरा मन एक रेतीला कण !

एक अनबुझी प्यास लेकर

बार-बार उस एक बूंद की तलाश में,

जैसे पपीहे को बरसात की वो पहली बूंद

वक्त के इंतज़ार के बाद मिली

और तिश्नगी को त्रप्त कर गई.

वैसे ही मेरा मन

हं! मेरा प्यासा मन

उसी अंतरघट के तट पर

कई बार इसी प्यास को बुझाने

अद्रश्य धारा की तलाश में

अनंत काल से भटक रहा है.

देवी नागरानी

9 comments:

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

उसी अंतरघट के तट पर

कई बार इसी प्यास को बुझाने

अद्रश्य धारा की तलाश में

अनंत काल से भटक रहा

और यही भटकन ज़िंदगी भर चलती रहती है ...बहुत सुन्दर रचना

Kailash Sharma said...

बहुत गहन चिंतन से परिपूर्ण सुन्दर रचना..

mridula pradhan said...

behad sunder.

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

चर्चा मंच के साप्ताहिक काव्य मंच पर आपकी प्रस्तुति मंगलवार 24 - 05 - 2011
को ली गयी है ..नीचे दिए लिंक पर कृपया अपनी प्रतिक्रिया दे कर अपने सुझावों से अवगत कराएँ ...शुक्रिया ..

साप्ताहिक काव्य मंच --- चर्चामंच

वाणी गीत said...

पानी बीच मीन पियासी सी अनुभूति हुई , इस रचना को पढ़ कर !

vandana gupta said...

्यही भटकाव ही तो प्यास बढाता रहता है………सुन्दर भावाव्यक्ति।

महेन्द्र श्रीवास्तव said...

मेरा मन एक रेतीला कण !

क्या बात है, बहुत सुंदर

M VERMA said...

अंतर्मन के एहसास को बखूबी पिरोया है

रविकर said...

मित्रों चर्चा मंच के, देखो पन्ने खोल |
आओ धक्का मार के, महंगा है पेट्रोल ||
--
बुधवारीय चर्चा मंच