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Monday, May 2, 2011

हकीकत

आज वो

मेरे सामने ठूंठ बनकर खड़ा है

देख रही हूँ पिछले तीन माह से

निरंतर देखती रही मैं

उसकी अठखेलियाँ

हरी भरी लहलहाती वो शाखें

हंसती, झूमती, नाचती वो पत्तियाँ

मौसम के हर रंग से भीगा

वो शजर, भूल गया था झड़ जाना है

उम्र ढली अब घर जाना है.

तमाम ज़िन्दगी बीती उसका

बीज से विस्फोटित होकर

विकसित हुआ, फला फूला

फिर भी, हर बदलता मौसम

उसे तन्हा करता जाता है

और आज

वह मेरे सामने उदास सा

ठूंठ बनकर खड़ा है

मैं उसे देख रही हूँ

वो खिड़की के उस पार

मैं खिड़की के उस पार खड़ी हूँ.

देवी नागरानी

9 comments:

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

यथार्थ को अभिव्यक्त करती रचना

mridula pradhan said...

atyant bhawpurn....

Sadhana Vaid said...

बहुत सुन्दर रचना ! पतझड़ के बिम्ब को लेकर बहुत सूक्ष्मता से एक दर्शन व्याख्यायित कर दिया आपने ! बधाई स्वीकार करें !

वाणी गीत said...

ठूंठ हुआ पेड़ और एक पूरी उम्र गुजार चूका व्यक्ति ...
एक खिड़की के इस पार , एक उस पार ...

पतझड़ सिर्फ पेड़ों पर नहीं इंसानों पर भी आता है ...
भावपूर्ण अभिव्यक्ति !

shikha varshney said...

वाह बहुत सुंदरता से लिखी है कविता.

सुरेन्द्र सिंह " झंझट " said...

पूरा जीवन दर्शन समाहित है आपकी रचना में

Markand Dave said...

आदरणीय सुश्रीदेवीजी,

तितली को पता है,बसंत बिखर ने को है,इसीलिए वह अपना सारा आनंद पुष्प पर लुटा देती है..!!

बहुत सटीक,सुंदर रचना..!!

बहुत-बहुत बधाई।

मार्कण्ड दवे।
http://mktvfilms.blogspot.com

Kailash Sharma said...

बहुत भावपूर्ण अभिव्यक्ति..

Devi Nangrani said...

Is sahil par insaniyat khadi hai aur aap sabhi ki pratikriya use sampoorn saans lene ke liye protsahit karti rahegi
sadar
Devi Nangrani