शिवदत्त अक्स की एक ग़ज़ल
यूँ ही आहों की गरमी से नहीं पत्थर पिघलते हैं
चले जब आंधियाँ घर में, नहीं फिर दीप जलते हैं
हुई जब भी मुलाकातें, गले मिल मिल के रोते थे
बड़ी है बेबसी इतनी नहीं अब अश्क ढलते हैं
कभी कागज़ के फूलों पे न भंवरे गुनगुनाते हैं
न शम्अ हो अगर रौशन नहीं परवाने जलते है
वो क्या जानेंगे ये बातें मुहब्बत से जो डरते हैं
वो समझेंगे ये किस्से जो उल्फ़त में मचलते है
जमाना था हमारी राहें इक मंज़िल पे मिलती थी
मिलते अक्स और वो अक्सर नहीं पर साथ चलते हैं
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