मूक ज़ुबान
कुछ कहने की कोशिश में
फिर भी नाक़ाबिल रही
नहीं बयां कर पाई उन अहसासों को
जो उमड़ घुमड़ कर
यादों के सागर की तरह
उसकी प्यसी ज़ुबाँ के अधर तक आ तो जाते हैं
पर अधूरी सी भाषा में
वह अनकही दास्तां
बिना कहे, फिर मौन रह जाती है
यह बेबसी है उसके सिये हुऐ लबों की
जो आज़ादी के नाम पर
अब भी दहशतों की गुलामी में
जकड़े हुए हैं.
देवी नागरानी
कुछ कहने की कोशिश में
फिर भी नाक़ाबिल रही
नहीं बयां कर पाई उन अहसासों को
जो उमड़ घुमड़ कर
यादों के सागर की तरह
उसकी प्यसी ज़ुबाँ के अधर तक आ तो जाते हैं
पर अधूरी सी भाषा में
वह अनकही दास्तां
बिना कहे, फिर मौन रह जाती है
यह बेबसी है उसके सिये हुऐ लबों की
जो आज़ादी के नाम पर
अब भी दहशतों की गुलामी में
जकड़े हुए हैं.
देवी नागरानी
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