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Sunday, June 5, 2011

आस का दामन

यक़ीन की डोर पकड़ कर

मेरे इस मासूम से मन को

आस का दामन छूने की तमन्ना

अब तक है,

सामने सूरज की रौशनी

आस की लौ बनकर

जगमगा रही है

पर, जाने क्यों?

ज़िंदगी की दल-दल में

विवशता धँसती ही जा रही है

मेरी मुफ़लिसी की,

मेरी अपंगता की

जो मेरी अक्षमताओं का

प्रद्रशन करने में कोई कसर नहीं छोड़ती

पर सांसें निराशा का दामन

छोड़ कर, आज भी

जीवन का हाथ थाम रही है

शायद उन्हें अपना मूल्य कथने की

आज़ादी है.

2 comments:

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

यह तमन्ना ही आगे बढ़ने की प्रेरणा देती है ..अच्छी प्रस्तुति

mridula pradhan said...

bahut sunder likhi hain.....