ग़ज़ल
कुछ न कह कर भी सब कहा मुझसे
जाने क्या था उसे गिला मुझसे
चंद साँसों की देके मुहलत यूँ
ज़िंदगी चाहती है क्या मुझसे
क्या लकीरों की कोई साज़िश थी
रख रही हैं तुझे जुदा मुझसे
जो भरोसे को मेरे छलता है
वो ही उम्मीद रख रहा मुझसे
शोर ख़ामुशी का न अभ पूछो
कह गई अपना हर गिला मुझसे
ऐब मेरे गिना दिये जिसने
दोस्त बनकर गले मिला मुझसे
जिसने रक्खा था क़ैद में मुझको
ख़ुद रिहाई क्यों चाहता मुझसे
2 comments:
बहुत ही लाजवाब शेर हैं इस ग़ज़ल के ...
Digamber ji, Bahut din baad APNE hi ghar laut I hoon. Phir se connect Hona hai.
Dhanyawaad
Post a Comment