आँखें बंद है मेरी
तीरगी से लिपटा हुआ
मेरा यह मन,
गहरे बहुत, गहरे
धंसता चला जाता है
अपने ही भीतर की खाइयों में,
आखिर थक हार कर जब,
मैं बेबसी में खुद को छोड़ देती हूँ,
तब लगता है मुझे
मैं रोशनी से घिर जाती हूँ ,
फिर मुझे डर नहीं लगता
न जाने किस बात का डर पाल लिया था मैंने
खुद से भी कोई डरता है क्या?
अब मुझे डर नहीं लगता ।
देवी नागरानी
No comments:
Post a Comment