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Thursday, December 19, 2013

बेजुबान चीखें

“दिल धड़क उठा, तब

जब,

दिल दहलाती चीख गूंज उठी

यहीं कहीं, आस-पास

अपने ही भीतर, और

बेसदा सी वह आवाज़

घुटती रही, घुटती रही

पर

मैं कुछ न कर सकी !

“दिल सिसक उठा, तब 

जब, जाना

काले बादलों की क़बा भी

उसकी अंग-रक्षक न बन पाई

बेनाम, बेनंग आदम हमशरीक़ रहे

उस गुनाह में

जिसकी सज़ा आज

मानवता के सर पर

तलवार बन कर लटक रही है

बाखुदा! उस सज़ा में

नारी का रुआं रुआं हाज़िरी भर रहा है

आज भी, अभी भी, इस पल भी

पर कोई कुछ नहीं कर रहा!!

“दिल रोता है

जब आँखें देखती हैं

बेधड़क, बेझिझक घूमती बेहयाई

दिशाहीन वे दरिंदे, साज़िशी गिद्ध बनकर

पाकीज़गी को चीर-फाड़ रहे हैं।

जख्मी जिस्म से निकलती

तेज़ नुकीली चीखें

इन्सानियत की ख़ला में

अपने लाचार पंजे गाढ़ रही है

इस उम्मीद में, हाँ इस उम्मीद में, कि 

कोई तो एक होगा

मानवता का अंगरक्षक

जो इन लाखों आवाज़ों के बीच

सुनकर दिल दहलाती वह चीख 

एक उजड़ती ज़िंदगी को बचा पाये।

पर हर आस

बेआस होकर लौट रही है 

और

कोई कुछ नहीं कर पा रहा है!

आज भी चीखें

लटक रही हैं फ़ज़ाओं में

आज भी कासा-ए-बदन

भिखारी की तरह                                                                         
मांग रहा है

अपने ही भाई-बेटों से

अपनी बेलिबास क़ज़ा के लिए

एक लजा का कफ़न !

इस आस में, कि शायद

कोई कुछ कर सके!!