वह एक धोबिन
अपनी ही दरिद्रता की
गंदगी में
अमीरी की मैल धोती है।
उस बाहरी उजलेपन को
देखने वाली आँखें
उसके पीछे का मटमैलापन
नहीं देख पातीं।
काश अमीरी भेद पाती
तो यक़ीनन देखती और महसूसती
उस गंदगी की बदबू को
जो वह ओढ़ती रहती है बार-बार
सच मानिए, तब वह ज़रूर
एक उजला रुमाल
अपनी नाक पर ज़रूर धर देती।
देवी
नागरानी